Famous Festivals in Himachal Pradesh
Famous Festivals in Himachal Pradesh : त्यौहार किसी भी क्षेत्र में सांस्कृतिक जीवन की सही झांकी प्रस्तुत करते हैं। त्यौहार हमें एकता के सूत्र में जोड़ते हैं और इनका हमारे आर्थिक , धार्मिक सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन से सीधा संबंध है।
Table of Contents
चैत-संक्राति, चतराली , चातरा ,ढोलरू :
चंद्र गणना के अनुसार “चैत ” का महीना वर्ष का पहला महीना होता है। विक्रमी संवत चैत मास की प्रथम तिथि (देशी महीनों की तिथि को स्थानीय बोली में प्रविष्टे कहा जाता है) से प्रारम्भ होता है। चैत की संक्रांति भी त्यौहार के रूप में मनाई जाती है ताकि नया वर्ष शुभ और उल्लासमय हो। इस दिन ‘ढाक ‘ या ‘तुरी ‘ जाति के लोग नववर्ष का गीत गाते हुए गॉंव-गाँव जाते हैं। कुल्लू में इस त्यौहार को चतराली या चतरा कहते हैं। और चम्बा के भरमौर इलाके में इसे ढोलरू कहते हैं। चतराली में औरतें रात को इकट्ठा होकर नाच गान करती हैं। ढोलरू में भी नृत्य का आयोजन किया जाता है
छिंज :
चैत के महीने में निम्न भाग के क्षेत्रों में कुछ लोग अपनी इच्छा पूरी हो जाने पर या कुछ लोग सामूहिक तौर पर , स्थानीय देवता जिसे लखदाता कहते हैं , को प्रसन्न करने के लिए छिंज का आयोजन करते हैं। जिसमे दूर -दूर से पहलवान बुलाये जाते हैं। इसका आयोजन आमतौर पर ऐसे स्थान पर किया जाता है जो समतल हो परन्तु आस-पास से ऊँचा हो , ताकि ऊँचे स्थान से लोग कुश्तियां देख सकें। जहाँ कुश्तियाँ लड़ी जाती है वह जगह खोद कर नर्म कर दी जाती है। इसे ‘पिंड ‘ कहते हैं। छिंज कुछ तो पारम्परिक रूप से कई सालों से मनाई जा रही है , लेकिन कुछ मन्नत पूरी होने के उपरान्त किसी एक परिवार द्वारा आयोजन की जाती है।
बैसाखी :
बिस्सु या बिस्सा (शिमला ) , बीस (किनौर ), बसोआ (बिलासपुर -काँगड़ा ) , लिसु (पांगी ) नामों से ज्ञात यह बैशाखी का त्यौहार पहली बैशाख -13 अप्रैल को लगभग सारे देश में मनाया जाता है। इस दिन मण्डी में लोग रिवालसर एवं पराशर झील में , बिलासपुर के लोग मारकण्डा में , काँगड़ा घाटी के लोग बंगाणा तथा शिमला के लोग ततापानी एवं गिरी-गंगा में स्नान करतें हैं। इस दिन मीठे पकवान बनाये जाते हैं। शिमला , सिरमौर , क्षेत्र में इस दिन माला नृत्य और धनुष बाण से ‘ठोडा नृत्य ‘ किया जाता है।
नाहौले :
ज्येष्ठ मास की संक्रांति (13-14 मई ) को निम्न शिवालिक भाग के क्षेत्रों में नाहौले नामक त्यौहार मनाया जाता है जिसमे मीठे पकवान बनाकर खिलाये जाते हैं। ये चम्बा के गद्दी लोगों के नवाला से अलग है।
हरियाली :
श्रावण मास के पहले दिन वर्षा ऋतु का त्यौहार हरियाली मनाया जाता है। इसे लाहौल में शेगत्सुम , जुब्बल-किनौर में दखरैणा , काँगड़ा में हरियाली , बिलासपुर -मण्डी में चिढ़न कहा जाता है। किसान लोग इस दिन पशुओं से जुएँ , कीड़े और चीचड़ निकालकर उसे गोबर के उपलों में दबाकर गॉंव के बाहर सुखी झाड़ियों में रखकर जला देते हैं। ऐसा जाता है कि ऐसा करने से बरसात में पशुओं को इन कीड़ों से राहत मिलती है। लाहौल में इस त्यौहार को शेगत्सुम कहते हैं। इस दिन सवेरे ही लोग ”टोह ‘ (सतु का गोला बनाकर ऊपर मक्खन रखे हुए ) और पीले तथा धूप जला कर छतों पर ले जातें हैं और उन्हें हवा में फेंककर ‘गेफान’ (गुरु घण्टाल ) को अर्पित करते हैं।
रक्षा बंधन :
रक्षा बंधन का त्यौहार भादों मास की पूर्णमासी को मनाया जाता है। शिमला में इसे रक्षपुन्या ,बिलासपुर में रखड़ी या रखडून्या , मंडी और सिरमौर में ‘सलोनु ‘ कहा जाता है।
चेरवाल :
यह त्यौहार भादों मास के पहले दिन (15-16 अगस्त ) मनाया जाता है। जमीन से गोलाकार मिटटी की तह निकालकर एक लकड़ी के तख्ते पर रखी जाती है और उसके चारों ओर फूल और हरी घास सजाई जाती है। इसको चिड़ा कहते है। इसे घर के बरामदे में रखा जाता है। शाम को घर के सभी लोग धूप जला कर और फल आदि देकर पूजा करते हैं। बच्चे चिड़ा के गीत गाते हैं। प्रथम असूज (सितम्बर ) को इसे गोबर के ढेर पर फेंक दिया जाता है। जहाँ से उसे खेतों में लाया जाता है। इसे पृथ्वी पूजा कहा जाता है। कुल्लू में इस त्यौहार को भदराजों और चम्बा में ‘पथेडु’ कहते है जिसमे लड़कियां नाचती है और पैथोडू या ‘पतरोड़ू’ नाम का पकवान बनाया जाता है।
जागरा /जगराता :
वैसे जगराता साल के किसी भी दिन किसी भी देवता की स्मृति में मनाया जा सकता है परन्तु भादों महीने में जगराता का विशेष महत्व है। जगराता रखने वाले परिवार के और पड़ोस या गाँव के व्यक्ति सारी रात जागकर संबंधित देवी-देवता का कीर्तन गान करते है। शिमला ,किनौर तथा सिरमौर क्षेत्र में महासू देवता की याद में भादों महीने में मनाया जाता है। प्रतिवर्ष शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन महासू देवता के सम्मान में प्रत्येक परिवार का सदस्य व्रत रखता है। महासू देवता की प्रशंसा में बिसू गीत भी गाया जाता है।
भारथ :
प्रदेश के भिन्न भाग के क्षेत्रों में भादों महीने और साल के अन्य महीनों में भारथों का आयोजन किया जाता है। भारथ भी जगराते की भांति गाए जाते हैं। लेकिन भारथ में इस किस्म का गायन करने वालों की एक कुशल टोली होती है और उस टोली के सदस्य ही अपने अलग वाद्य यंत्रों जिसमे डमरू और थाली आदि का बजाना प्रमुख होते हैं के वादन गाते हैं। बाकी लोग उन्हें सुनते है। भारथ गायन का आधार किसी वीर दैवीय पुरुष की गाथा होती है। हिमाचलीय क्षेत्रों में भारथों में गाई जाने वाली गुगा-गाथा प्रमुख है।
फुलैच :
भादों के अंत या आसुज के शुरू के महीने में मनाया जाने वाला यह किनौर का प्रसिद्ध त्यौहार है और मुख्यत: यह फूलों का त्यौहार है। इसे उख्यांग भी कहते हैं। ‘उ’ फूलों को कहते हैं और ‘ख्यांग’ देखने को यानी फूलों को देखना। इस दिन लोग गॉंव के देवता को को फूलों की माला चढ़ाते हैं और बाद में लोगों में बाँट दिए जाते हैं। देवता का पुजारी आने वाले मौसमों और फसलों के बारे में भविष्यवाणी करता है।
सायर (सैरी ):
यह त्यौहार प्रथम आसुज (सितम्बर ) को मनाया जाता है। यह त्यौहार वर्षा की समाप्ति और आषाढ़ी फसल के आने की ख़ुशी में मनाया जाता है। गद्दी लोग इस त्यौहार को मानाने के बाद निचली घाटियों की ओर प्रस्थान करते हैं। शिमला की पहाड़ियों में नाइ , गाँव धनी लोगों को शीशा दिखाते हैं और धनी लोग उन्हें इनाम देते हैं।
बलराज :
दिवाली के दूसरे या तीसरे दिन बलराज और उसके अगले दिन भैया-दूज का त्यौहार मनाया जाता है। बलराज के दिन कारीगर कोई काम नहीं करते न ही जमींदार हल चलाते हैं। इसे विश्व कर्मा दिवस भी कहते है।
बूढ़ी दिवाली :
यह त्यौहार दिवाली के ठीक एक महीने वाद मगहर की अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन बलराज को जलाया जाता है। सारे लोग इकठ्ठे होकर अपनी बोली में रामायण या महाभारत का गायन करते हैं और अंगेठी के चारों ओर नाचते हैं। देवताओं और राक्षसों के मध्य बनावटी लड़ाई दिखाई जाती है और जिसमे अंतत विजय देवताओं की बताई जाती है।
माघी (लोहड़ी) :
यह त्यौहार प्रथम माघ की संक्रांति को मनाया जाता है। निचले हिमाचल में लोहडी और ऊपरी हिमाचल में यह उत्सव ‘माघी’ या साजा’ कहलाता है। इस दिन तीर्थ स्थानों पर स्नान करना शुभ माना जाता है। पकवान के रूप में चावल और माश (उड़द ) की खिचड़ी बनाई जाती है जिसे घी या दही के साथ खाया जाता है। कई जगहों में मीठे व नमकीन ‘बबरू’ पकाए जाते हैं। गाँव में अँगीठे जलाये जाते है। जहाँ रात को भजन कीर्तन गाते हैं। लड़के और लड़कियां अलग-अलग टोलियों में घर-घर जाकर लोहड़ी के गीत गाते हैं। बच्चों को प्रत्येक घर में अनाज व पैसे दिए जाते हैं।
खोजाला :
लाहौल में जनवरी (माघ की पूर्णमासी) में दीपावली का त्योहार मनाते हैं, जिसे ‘खोजाला’ कहा जाता है। ऊँचे स्थल पर प्रत्येक व्यक्ति ‘गेफान’ और ‘ब्रजेश्वरी देवी’ के नाम पर देवदार की पत्तियाँ आग में डालता है। कुछ क्षेत्रों ‘ध्याली’ का त्योहार दीवाली से दो माह बादमनाया जाता है। इस दिन ‘बबरू’ पकवान बनते हैं।
खोहड़ी :
लोहड़ी से दूसरे दिन खोहड़ी मनाई जाती है जिसमें कई स्थानों पर मेले लगाये जाते हैं। इस दिन कुंआरी लड़कियों के कान और नाक बीधना अच्छा समझा जाता है। कारीगर लोग इस दिन कोई काम नहीं करते।
शिवरात्रि :
फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चौदहवीं तिथि को मनाया जाने वाला शिवरात्रि का त्यौहार हिमाचल प्रदेश में बहुत महत्व रखता है क्योंकि शिवजी का हिमालय के पहाड़ों से सीघा सम्बन्ध माना जाता है और पौराणिक तौर पर शिवजी यहा के धार्मिक और अध्यात्मिक जीवन से जुड़े हैं। निम्न भाग के क्षेत्रों में इस दिन व्रत रखा जाता है और शिवजी की पिंडि का पूजन किया जाता है। शिवालयों में कीर्तन किये जाते हैं और शिव के भजन गाये जाते हैं। मध्य व उपरी भागों के क्षेत्रों में शिवरात्रि के मनाने का अपना अलग तरीका और महत्व है।
शिवरात्री के दिन सवेरे ही लोग उठ जाते हैं। परिवार के सभी सदस्य स्नान करते हैं। अधिकतर लोग उपवास रखते हैं। घर की स्त्रियां सारा दिन घी या तेल में तला हुआ पकवान बनाने व्यस्त हो जाती हैं। बच्चे खेतों में जाकर जौ के हरे पौधे, चेरी की टहनियाँ और छाम्बू के पत्ते लाकर उनका एक हार तैयार करते हैं जिसे “चांदवा” कहते हैं और यह घर की छत से रस्सी से लटकाया जाता है। चान्दवे के नीचे गोवर से लीप कर आटे से चौक या मण्डल बनाया जाता है। गोवर या मिट्टी की शिवजी-पार्वती की मूर्तियां बना कर चौक में रखी जाती हैं और सांयकाल इन की पूजा करने के बाद तेल या घी में तले पकवान खाये जाते हैं।
सारी रात शिवजी की महिमा का गान किया जाता है और सवेरे 4 बजे के लगभग घर का एक बड़ा आदमी उन मूर्तियों को उठाकर आदर सहित जौ के खेतों में छोड़ आता है – चांदवा भी कमरे में किसी दूसरे जगह लटका दिया जाता है। शिवरात्री वाले दिन बच्चे, छोटे-छाटे समूहों में जाकर “करंगोड़ा” और “पाजा” वृक्षों की छोटी-छोटी टहनियां लाते हैं और घर के दरवाजे से लटका देते हैं।
विजया-दशमी :
यह त्यौहार आश्विन के नवरात्रों के अन्त में मनाया जाता है जो राम कारावण पर विजय को दर्शाता है। इन नवरात्रों में स्थान-स्थान पर राम नाटकों, जिन्हें रामलीला कहते है, का आयोजन किया जाता है और विजया-दशमी के दिन रावण और उसके भाई कुभकर्ण तथा पुत्र मेधनाथ के पुतले जलाये जाते हैं। यद्यपि यह राम के विजय के उल्लास में मनाया जाता है, पुराने समय में अन्य राजा लोग भी इसे विजय के दिन के रूप में मनाते थे । शत्रु के विरूद्ध चढ़ाई करने के लिए यह शुभ दिन माना जाता है। यदि किसी राजा के शत्रु न हो तो भी उसे चढ़ाई कर अपनी सीमा पार करके वापिस आना चाहिए।
नाग-पंचमी :
यह श्रावण मास की शुक्लपक्ष की पंचमी को मनाई जाती है। यह नागों की पूजाकरके उन्हें प्रसन्न करने का त्यौहार है। नाग-पंचमी के दिन “बामी” (दीमक द्वारा जमीन पर तैयार किया गया पर्वतनुमा घर) में नागों के लिए दूध, कुंगु और फूल डाले जाते हैं क्योंकि बामी में नागों का निवास माना जाता है। यह भी विश्वास किया जाता है कि जो नर-नारी सांप बन गए हैं उन्हें उस दिन दूध पिलाने से वे अगले जन्म में फिर मनुष्य योनि में आ जाएगें।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी :
यह त्यौहार भादो जन्माष्टमी को मनाया जाता है। इस दिन रात के 12 बजे श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। श्रीकृष्ण की बाल -मूर्ति को पलंघूड़े में झुला कर उसकी पूजा की जाती है। व्रत और जगराता रखा जाता है। सारा रात श्रीकृष्ण का कीर्तन किया जाता है। यह पर्व पुरे भारतवर्ष में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। मथुरा तथा बृन्दावन आकर्षण के मुख्य केन्द्र होते हैं।
होली :
यह त्यौहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। लोग व्रत रखते हैं जो होली के जलाने के बाद खेला जाता है। इस दिन बच्चे , बूढ़े , जवान, स्त्री-पुरूष रंग और गुलाल की होली खेलते हैं और एक दूसरे पर रंग फेंकते हैं। इसके बारे में भी कई लोक-गाथाएं प्रचलित हैं। सुजानपुर की होली पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। यहां पर राज्य स्तरीय होली-मेला भी लगता है।
हरितालिका :
यह त्यौहार भादों महीने के कृष्ण पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। यह स्रियों का त्यौहार है जिसमे वे शिवजी-पार्वती और पक्षियों की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाकर ,उन्हें सजाकर व रंग चढ़ाकर पूजती हैं। यह व्रत पतियों की रक्षा के लिए किया जाता है। इसे लड़कियां भी करती है जिसमे उन्हें पति अच्छा पति प्राप्त हो।
भुण्डा :
भुण्डा उत्सव बारह वर्ष के बाद मनाये जाते हैं । निरमण्ड का भुण्डा उत्सव सबसे प्रसिद्ध है। भुण्डा का संबंध परशुराम जी की पूजा से है। परशुराम पूजा पाँच स्थानों पर होती हैं, ये स्थान हैं. मण्डी में काओ और ममेल, कुल्ल में निरमण्ड एवं नीरथ तथा ऊपरी शिमला में दत्तनगर। यह नरमेध की तरह होता है। यह उत्सव खशों की नागों और बेड़ों पर जीत का सूचक है। इसमें पर्वत की चोटी से नीचे तक रस्सा बाँध दिया जाता था जिस पर मनुष्य फिसल कर नीचे आता था।
वर्तमान में बकरी को पटरे पर बैठाकर नीचे की ओर धकेला जाता है। ‘बेडा’ जाति के लोग ‘मूंज’ इकट्ठा कर 100 से 150 मीटर लम्बी रस्सी तैयार करते हैं। निश्चित दिन पर ‘बेड़ा’ स्नान करता है । पुजारी उसकी पूजा करते हैं और उसे देवता माना जाता है। पर्वत की चोटी पर रस्सी से बँधे टुकडे पर बेड़ा’ को बैठा कर फिसलाया जाता था। पुजारी के संकेत पर उसे थमने वाली रस्सी काट दी जाती थी।
शान्द :
शान्द का शाब्दिक अर्थ है शान्ति और समृद्धि। यह उत्सव भी हर बारहवें वर्ष खुन्द खश द्वारा मनाया जाता है जिसमें ग्राम देवता के नाम पर बलियाँ दी जाती हैं। ये त्योहार प्रायः सर्दियों में मनाया जाता है।
नवाला :
नवाला गद्दियों का त्योहार है जिसमें शिवजी की पूजा रात भर की जाती है। घर के भीतर चावल के आटे से चौका तैयार कर शिव की पिण्डी को उसमें स्थापित कर देते हैं। फूलों की मालाएँ पिण्डी के ऊपर छत पर लटका दी जाती हैं। पुजारी अनुष्ठान करवाता है तथा यजमान भेट चढ़ाता है। बकरियों की बलि भी दी जाती है। शिवजी से जुड़े गीत जिन्हें ‘एंचलियाँ कहते हैं सारी रात गाए जाते हैं। शिवजी को बलि देने के बाद चेले प्रश्नों के उत्तर देते हैं।
गोची (गोटसी) :
चन्द्राभागा घाटी (लाहौल) में फरवरी माह में गोची त्योहार मनाया जाता है। जिन घरों में पिछले वर्ष पुत्र का जन्म हुआ होता है, उन्हीं घरों में यह त्योहार मनाया जाता है। यह एक प्रकार से पुत्र जन्म का त्योहार है।
फागुली :
यह त्योहार बसंत पंचमी के दिन किन्नौर में मनाया जाता है जिसमें कागज पर बने रावण के चित्रों पर लोग बाणों से निशाना लगाते हैं। जिसे लंका मारना या लंका दहन कहते हैं। यह त्योहार कुल्लू जिले में फरवरी-मार्च में मनाया जाता है।
काँगड़ा में रली पूजन परम्परा :
हिमाचल प्रदेश का यह त्यौहार व पर्व देवी देवताओं से जुड़ा है , विशेषकर शिवजी व शक्ति से। विवाह के पूर्व में मनाया जाने वाला ‘रलियां दा ब्याह ‘ पुरे काँगड़ा क्षेत्र में अत्यंत लोकप्रिय त्यौहार है। युवा कन्याएं इस मेले में शिव और पार्वती की मूर्तियों की पूजा करते हैं। रली पूजन चैत्र संक्रांति से शुरू हो जाता है और एक महीने तक चलता है।
Read more : Pahadi Paintings of Himachal Pradesh
- Educational Psychology And Pedagogy Solved MCQs For HP TET/CTET Part-26
- JNV Dungrin Hostel Superintendent Recruitment 2025
- IIT Mandi Driver, Nurse, JE And MO Recruitment 2025
- JNV Nahan Dance Expert, Sports Coach Recruitment 2025
- SBI Junior Associate (Clerk) Recruitment 2025 – Apply Online ,Download Notifications
Wel done sir please keep uploading materials