सुकेत रियासत में जन आन्दोलन – हिमाचल प्रदेश
1862 ई. में सुकेत रियासत में भ्रष्ट और दमनकारी वज़ीर के विरोध में भारी जन-आन्दोलन हुआ। राजा उग्रसेन (1836 -1876 ) का वजीर नरोत्तम बहुत अत्याचारी था। उनसे जनता बहुत दुखी थी। राजा उग्रसेन के पुत्र टिक्का रूद्रसेन ने भी वज़ीर के विरूद्ध शिकायत की और प्रजा का साथ दिया। अन्त में राजा ने ‘नरोत्तम वज़ीर को पद से हटा दिया और उसके स्थान पर ‘ढुंगल’ को वज़ीर नियुक्त किया। आशा के विपरीत ढुंगल वज़ीर ने भी दमन की नीति अपनाई। उसने रियासत के उच्च वर्ग के लोगों पर ‘डांड’ नाम का कर लगाया।
ढुंगल वज़ीर ने दस वर्ष पूर्व राजा उग्रसेन के गद्दी पर बैठने का कर प्रतिष्ठित लोगों से ‘डांड’ यानि ‘दंड’ व जुर्माने के रूप में वसूल किया। लोगों ने उसके दमनकारी शासन को कुछ समय तक सहन किया। लेकिन साधारण जनता का
राजा के साथ सीधा सम्पर्क नहीं था। राजा का प्रभाव केवल राजधानी के आस-पास तक सीमित था। दमन और शोषण-के कारण प्रजा में इतना असन्तोष फैल गया था कि विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गई।
एक दिन ढुंगल वज़ीर रियासत के पहाड़ी क्षेत्रों के दौरे पर गया और उसने गढ़-चवासी में दरबार लगाया हुआ था। इस इलाके के मुखिया सतर्क हो गए। उन्होंने अवसर पाकर प्रजा को उकसाया तथा गढ़-चवासी में भारी जन-समूह इकट्ठा कर लिया। उत्तेजित प्रजा ने वज़ीर का घेराव किया और उसे गढ़-चवासी में ही बन्दी बना दिया। इलाके के स्त्री-पुरूष, बूढ़े -जवान, छोटे-बड़े, सभी लोगों ने बिना किसी भेद-भाव के इस जन-आन्दोलन में भाग लिया। आंदोलनकारी दिन-रात गढ़-चवासी को घेर कर बैठे रहे। गांव की महिलाओं ने आन्दोलनकारियों के भोजन एवं वस्त्रों का प्रबन्ध किया।
बारह दिन तक उत्तेजित प्रजा ने ढुंगल वज़ीर को गढ़-चवासी में ही बन्दी बना कर रखा।
भारी जन-आन्दोलन को देख कर अन्त में राजा उग्रसेन ने प्रजा से वज़ीर पर उचित कार्यवाही करने का आश्वासन दिया। राजा के इस आश्वासन पर आन्दोलनकारियों ने ढुंगल वज़ीर को रिहा कर दिया।
आश्वासन के अनुसार शीघ्र ही राजा उग्रसेन गढ़-चवासी क्षेत्र में गए और वज़ीर के विरूद्ध शिकायतें सुनीं । राजा ने ढुंगल वज़ीर के अपराधों को देखते हुए उसे 20,000 रूपये जुर्माना किया और नौ महीने कैद की सजा सुनाई। ढुंगल को वज़ीरी से निकाल कर उसके छोटे भाई लौंगू को वज़ीर बना दिया गया।
सुकेत में बगावत
1878 ई. में सुकेत रियासत में प्रजा ने राजा रूद्रसेन और उसके वज़ीर ढुगंल के दमन, तानाशाही और आर्थिक शोषण का घोर विरोध किया। राजा रूद्रसेन ने चार रूपये प्रति ‘खार-अन्न’ लगान लगाया। एक खार-अन्न लगभग 16 मन के बराबर होता था। बाद में इस दर को बढ़ा कर आठ रूपये प्रति खार-अन्न कर दिया। इसी काल में राजा ने भ्रष्ट और पदच्युत ढुंगल को पुनः वज़ीर बना दिया। कुछ समय बाद लगान की दर 16 रूपये प्रति खार-अन्न कर दी। इसके अतिरिक्त लकड़ी, घास और पशु-धन पर भी भारी कर लगा दिया गया।
प्रजा ने राजा से न्याय की मांग की। परन्तु राजा रूद्रसेन ने जनता की अपील पर कोई ध्यान नहीं दिया। इससे प्रजा बेहद निराश हुई और रियासत में अशान्ति और असन्तोष फैल गया। प्रजा उत्तेजित होने लगी। मियां शिव सिंह के नेतृत्व में प्रजा ने राजा के विरोध में प्रदर्शन किये और बढ़ा हुआ लगान और अन्य कर देने से इन्कार कर दिया। राजा ने मियां शिव सिंह और कुछ अन्य आन्दोलन के नेताओं को रियासत से निकाल दिया और आन्दोलनकारियों को सख्त सजा देने की चेतावनी दी। करसोग क्षेत्र के किसानों ने खुले-आम बगावत कर दी और रियासत के मुन्शी परमेश्री दास को बन्दी बना लिया।
रियासत के अन्य इलाकों से सरकारी कर्मचारी भाग कर सुन्दर नगर पहुँचे और जनता ने सरकारी आदेशों का पालन करना बन्द कर दिया। इस अराजकता की स्थिति से निपटने के लिए जालन्धर का कमीशनर, मिस्टर ट्रिमलेट्ट सुकेत आया उसने सारे हालात की जांच पड़ताल की। ढुंगल वज़ीर को हटाकर उसके स्थान पर राजा ने रामदित्ता मल को वज़ीर बनाया। करसोग तथा अन्य क्षेत्र के सक्रिय आन्दोलनकारियों को हिरासत में ले लिया और कमीशनर ट्रिमलेट के आदेश पर उन्हें कड़ी सज़ा दी गई। परन्तु आन्दोलन का प्रभाव कम नहीं हुआ।
विद्रोह की इस स्थिति में राजा रूद्रसेन लाहौर चला गया। रियासत का प्रशासन ब्रिटिश सरकार ने सम्भाल लिया। ब्रिटिश सरकार ने पुनः आन्दोलन की जांच-पड़ताल की। आन्दोलन के नेता मियां शिव सिंह को कांगड़ा से वापिस बुलाया गया और उसे रियासत का मैनेजर नियुक्त किया गया। राजा रूद्रसेन के चाचा जगत सिंह को भी स्टेट का मैनेजर बना दिया गया।
मार्च 1879 ई. में ब्रिटिश सरकार ने राजा रूद्रसेन को विस्थापित करके उसके मर्दनसेन को राजा घोषित कर दिया। आन्दोलनकारियों की मांग पर लगान में कमी कर दी गई और लकड़ी, घास और पशु टैक्स हटा दिए गए। बहुत से आन्दोलनकारियों को रिहा कर दिया गया, केवल करसोग के कुछ बगावत करने वाले नेताओं को ही सज़ा हुई।
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