Fair And Festival of Lahaul Spiti | लाहौल स्पीति के मेले और त्यौहार
संस्कार और उत्सव समाज की धार्मिक आस्थाओं और मान्यताओं के प्रतिबिम्ब होते हैं। समाज जिस धर्म को अपनाता है वह संस्कारों और उत्सवों द्वारा प्रदर्शित होता है। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार के त्यौहार व उत्सव मनाए जाते हैं। इसी तरह जिला लाहौल-स्पीति जिला में अनेक त्यौहार व उत्सव का आयोजन किया जाता है।
Table of Contents
गोची (गोटसी ) (Gothsi) :
गोची के अवसर पर तीर-अंदाजी के उत्कृष्ट प्रदर्शन आयोजित होते हैं। यह उत्सव चन्द्राभागा घाटी (लाहौल) में फरवरी महीने में मनाया जाता है। जिन घरों में पिछले वर्ष पुत्र का जन्म हुआ होता है , उन्ही घरों में यह त्यौहार मनाया जाता है। जिन घरों में पिछले वर्ष पुत्र का जन्म हुआ हो , वो सभी गांव वालों को अपने घर आमंत्रित करता है और छांग पिलाता है। गांव का पुजारी ‘ल्हाबदम्पा’ शुर अर्थात देवदियार की पत्तियां जलाकर पूजा करता है।
खोजला / हालडा (Khojala) :
लाहौल में जनवरी (माघ की पूर्णमासी) में दीपावली का त्यौहार मनाते , जिसे खोजाला कहा जाता है। ऊँचे स्थल पर प्रत्येक व्यक्ति ‘गेफान’ और ‘ब्रजेश्वरी देवी’ के नाम पर देवदार की पतियाँ आग में डालता है। कुछ क्षेत्रों में ‘ध्याली’ का त्यौहार दीपाली से दो माह बाद मनाया जाता है। इस दिन नमकीन ‘बबरू’ पकवान बनते हैं।
लदारचा (Ladarcha) :
यह मेला काज़ा में मनाया जाता है। पहले यह मेला किब्बर गाँव में लगता था। यह मेला जुलाई महीने में लगता है। यहाँ दूर-दूर से व्यापारी व्यापार करने आते हैं।
शेगचुम देइला-पोरि (Pauri) :
प्रथम श्रावण को लाहुल क्षेत्र में शेगचुम’ नाम का त्यौहार मनाया जाता है। उससे अगले दिन गोशाल में देइला-पोरि का मेला लगता है। लोग जंगल में जाकर उन्हीं दिनों फूले देइला नाम के पुष्प लाते हैं और देवी को चढ़ाते हैं। मन्दिर में तिल्लो नाम की देवी की चांदी की मूर्ति स्थापित थी। वेदान्त-धर्म अनुयायियों ने 1940 के आस-पास तिल्लो की मूर्ति को चन्द्रभागा में प्रवाहित कर दिया और तब से यह पोरि-उत्सव समाप्त हो गया। ‘पोरि’ शब्द संस्कृत ‘पर्व’ का तद्भव रूप है। कुल्लुवी में इसे ‘पोर’ कहते हैं। कमांद के पराशर ऋषि का ‘कमांदी-पोर’ एक प्रसिद्ध पर्व है।
घोषय-योर (Ghoshya-Yor) :
किसी समय गोशाल के लोगों ने जंगल में वन-देवियों को प्रति-दिन नृतय क्रीड़ा करते देखा। गोशाल के राणा रघु के कहने पर उसका गवाला ‘मलाणी’ एक दिन वहां से चार शंख के मुखौटे जो देवियां नृत्य करते हुए पहनती थीं, उठाकर घर ले लाया। इस पर इन देवियों ने श्राप दिया कि यदि कुहं’ के अवसर पर हमारी स्तुति नहीं की गई तो राणा का सिर सात टुकड़ों में खण्डित होगा। तब से गोशाल में घूषेययोर’ नाम से उत्सव मनाया जाता रहा।
मलि (Mali) :
लाहुल की पत्तन घाटी के तलजाने गांव में जाहलमा जोबरंग और शांशातीन कोठियों का एक हिडिम्बा देवी का मन्दिर है। यहां मलि’ नाम से एक त्यौहार मनाया जाता है।
छेशु (Tsheshu) :
लांगदर्मा के मारे जाने पर बौद्ध क्षेत्र में जो खुशी के उत्सव मनाए गए वे आज भी स्थान-स्थान पर मनाए जाते हैं। उनमें से लाहुल की गाहर घाटी में जिला मुख्यालय केलांग के ठीक सामने भागा नदी के बाएं किनारे शशुर गांव में प्रति वर्ष जून-जुलाई में जो छेशु उत्सव मनाया जाता है वह एक उत्कृष्ट उदाहरण है। छेशु उत्सव के अवसर पर नर्तक रंगीन रेशम की आकर्षक ढीली-ढाली पोशाक पहनते हैं जिनके बाजू हाथों से भी बाहर लटके होते हैं।
प्रत्येक नर्तक मुंह पर आकर्षक परन्तु डरावना मुखौटा पहनता है। गोन्पा में ऐसे विचित्र, विलक्षण भयंकर याक की पूंछ के बालों से जड़े प्राचीन मुखौटों का संग्रह है। पैरों में लम्बे-लम्बे बूट और पाजामा पहना जाता है। वे ढोल, नगाड़ा, करनाल आदि वाद्य यन्त्रों की धुन में नाचते हैं।
गुतोर (Gutor) :
स्पिति की पिन घाटी के कुंगरी बौद्ध मठ में इस पर्व को गुतोर कहते हैं। यहां छम नृत्य में लामा द्वारा पहने जाने वाले एक वस्त्र की चित्रकारी बड़ी विशिष्ट है। वस्त्र के नीचे के में पर्वत श्रृंखलाओं का चित्र और ऊपर नीला आकाश दिखाया गया है जहां गजरने की मुद्रा में ड्रेगन तथा मंडराते सफेद-काले बादल दिखाए गए हैं। इस गोन्पा में आषाढ़ मास में पद्मसम्भव के जन्म दिवस पर एक मेला लगता है जिसमें छम नृत्य भुपचाल, डबग्यालिंग, दुइछेन तथा शंख के संगीत में नाचा जाता है।
कुंह-फागली/लोसर (Fagali/ Losar):
हालदा के पन्द्रह दिन बाद जो संयोग से अमावस्या की रात्रि का दिन होता है, कुंह (उच्चारण कुं, कु, कुस, कुह, कुंस भी) का त्यौहार मनाया जाता है। यह तिब्बती पंचांग के प्रथम मास का प्रथम दिन होता है और बौद्ध क्षेत्रों में सर्वत्र नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। इसे लोसर भी कहते हैं और लाहुल क्षेत्र में फागुन मास में मनाए जाने के कारण इसे फागली भी कहते हैं। कुंह के कुछ दिन पूर्व से ही लोग घर-आंगन की सफाई करते हैं और घर की दीवारों की लीपा-पोती की जाती है। कुंह की पूर्व सन्ध्या को ‘कहंयाग’ कहते हैं। उस समय घर-घर मारचु अर्थात गेंहू के आटे के तले हुए भटूरे बनाए जाते हैं। उन्हें पहले देवताओं को चढ़ाया जाता है और फिर सभी घर वाले मिलकर खाते हैं।
कुंह का दिन नए वर्ष की शुभ-कमानाओं से आरम्भ होता है। बच्चे नए वस्त्र पहन कर हाथ में यौरा और गेंदे के फूल लेकर प्रात: ही घर-घर में जाते हैं। घर के सभी सदस्यों को शुभकामनाओं के स्वरूप फूल देते हैं और ‘ढाल’नमस्कार करते हैं। घर वाले उन्हें मारचु और अखरोट देते हैं। दिन को बड़े बूढ़े भी एक दूसरे को यौरा देते और नमस्कार करते हैं। यौरा का अर्थ है अवरा’ अर्थात ‘जौ का फूल’।
कुंह के अवसर पर प्रत्येक घर में एक विशेष प्रकार की रोटी पकाई जाती है जिसे ‘मन्ना’ कहते हैं। यह कई तहों की बनती है तथा घी और शक्कर के साथ खाई जाती है। मन्ना भोटी या स्थानीय भाषा का शब्द नहीं है। यह अंग्रेजी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘यहूदियों का आध्यत्मिक आहार, स्वर्गीय रोटी, शरीर और मन के लिए स्वादिष्ट भोजन। ‘स्वादिष्ट भोजन तो यह है ही, स्वर्गीय भाषा भी इसमें लक्षित है क्योंकि यह विशेष अवसर पर पूजा के लिए तैयार की जाती है।
छोदपा :
बौद्ध एंव पूर्व-बौद्ध आस्थाओं और भारतीय पौराणिक आस्थाओं का समागम एक अन्य उत्सव में भी देखने को मिलता है। यह उत्सव खंगसर गांव में छोदपा नाम से जाना जाता है और वर्ष में प्राय: दो बार होता है, एक शरद ऋतु में और एक ग्रीष्म ऋतु में। उत्सव में प्राय: नृत्य-नटिकाओं की प्रस्तुति की प्रधानता रहती है।
दाचंग (Dachang) :
यह त्यौहार स्पीति में मनाया जाता है। यह तीर-अंदाजी का त्यौहार सप्ताह भर चलता है। इसमें नौजवान लड़के घरों की छत पर चढ़ कर नदी की ओर तीर छोड़ते हैं। वहां इनके लक्ष्य भूत ,प्रेत ,दानव , पिशाच ,रोग , बीमारी ,आदि समाज-विरोधी तत्व होते हैं। ऐसा करने से वर्ष भर गांव में इनका प्रकोप नहीं होता।
चेतरोरी (Chaitrori) :
प्रतिवर्ष प्रथम चैत्र को यह त्यौहार मनाया जाता है। उस दिन विशेष लामाओं को बुलाया जाता हो जो घर-घर में धार्मिक ग्रंथो का पाठ करते हैं। उस दिन काठु अन्न के आटे के दो बकरे बनाये जाते हैं। उन्हें तवे पर पकाया जाता है। ये ‘दांजा’ कहलाते हैं। उन्हें लगभग एक फुट लम्बी चौड़ी और दो इंच मोटी उसी अन्न की बनी तबे पर पकाई रोटी पर स्थापित किया जाता है जिसे परकण्ड कहते हैं। तब गांव का प्रत्येक पुरुष दूर से तीर कमान से निशाना लगाते हैं।
याने उत्सव (Yane Festival) :
यह उत्सव प्रति वर्ष जून के दूसरे सप्ताह में मनाया जाता है। यह विशेष रूप से भगवान त्रिलोकीनाथ की पूजा का दिन होता है। सभी लोग पुरुष और स्त्री इकट्ठे होकर त्रिलोकी नाथ या स्थानीय मंदिर गोम्पा में जाकर पूजा करते हैं।
Fair And Festival of Lahaul Spiti | लाहौल स्पीति के मेले और त्यौहार
अन्य पढ़ें : लाहौल स्पीति का इतिहास
- South East Central Railway Trade Apprentice Recruitment 2024
- HPU Shimla All Notification -27 March 2024
- HPU Shimla All Notification -26 March 2024
- UPSC Specialist Grade III, Scientist ‘B’ & Other Recruitment 2024 –Apply Online
- DRDO Graduate Apprentice, Technician & Other Recruitment 2024 -Apply Online