Kulind Janpad HP | कुलिंद -हिमाचल का प्राचीन जनपद
कुलिंद हिमाचल के चार प्राचीन जनपदों में से एक हैं। कुलिंद जनपद का क्षेत्र व्यास नदी के ऊपरी भाग से लेकर यमुना नदी के पर्वतीय क्षेत्र तक था। हिमालय की निचली पर्वत श्रेणियां तथा शिवालिक की पहाड़ियां कुलिंद जनपद के भाग थे।
अलेग्जेंडर कनिंघम के अनुसार सतलुज के दोनों ओर के पर्वतीय प्रदेश विशेष कर शिमला व सोलन जिलों के क्षेत्र कुलिंद प्रदेश में आते थे। दक्षिण में इनकी सीमा अम्बाला , सहारनपुर और सुगह तक थी। कनिंघम का यह मत भी था कि “सुगह” इनकी राजधानी थी। पूर्व में गढ़वाल का कुछ भाग भी इसी जनपद में आता है।
कुलिंद जनपद का वर्णन महाभारत ,बृहत्संहिता, विष्णुपुराण और मार्कण्डेय पुराण में आता है। इन सभी ग्रंथो के अनुसार यह जनपद उत्तर भारत में ही रहा होगा। महाभारत युद्ध में कुलिंद कौरवों की ओर से लड़े थे, परन्तु कुछ कुलिंद पुत्र पांडव पक्ष में भी लड़े थे। अर्जुन ने कुलिंद पर विजय प्राप्त की थी।
कनिंघम के अनुसार कुल्लू से लेकर गढ़वाल तक के पर्वतीय प्रदेश में आज के ‘कनैत’ कुलिंदो के ही वंशज है। मनेंद्र और उसके उत्तराधिकारियों का मथुरा पर लगभग 100 ई. पूर्व तक अधिकार रहा। जब कुषाणों ने मैदानी भाग पर अधिकार कर लिया तो कुलिंद पीछे हट गए।
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कुलिंदो की मुद्राएँ :
कुलिंदो की दो प्रकार की मुद्राएँ थी। इन मुद्राओं को दो अधिकारियों ने चलाया था। पहली मुद्रा पर मृग की आकृति है और साथ ही ‘अमोघभूति’ का नाम लिखा है। इसने चाँदी और तांबे की मुद्राएँ चलाई , जिनके तोल यूनानी तोल (चांदी 32 रती और और तांबा 144 ग्रेन) के बराबर है। परन्तु शैली भारतीय है। ऐसी मुद्राएँ कुछ कुछ तपा मेवा (हमीरपुर) में एवं कुछ ज्वालामुखी से और कुछ अम्बाला और सहारनपुर के बीच वाले भाग से मिली है। गढ़वाल क्षेत्र में भी कुलिंदो की मुद्राएं मिली है।
दूसरी मुद्राएँ छतेश्वर वाली तीसरी शताब्दी की हैं। कुलिंदो की ये दो प्रकार की मुद्राएँ ईसा पूर्व 150 से सन 200 तक प्रचलित थीं। मृग वाली मुद्राओं में अग्रिम भाग में कमल सहित लक्ष्मी की मूर्ति , एक मृग , सत्र सहित चौकोर स्तूप तथा एक चक्र बना है तथा ब्राह्मी में “अमोघमृतस महरजस राज्ञकुणदस” लिखा है। कुणिंद शासकों ने कुछ समय पूर्व भारतीय यूनानी राजाओं द्वारा प्रचलित चांदी की मुद्राओं के स्थान पर देश ढंग से चांदी की मुद्राएं तैयार कराई।
मुद्राओं में अंकित चिन्ह :
मुद्राओं के पृष्ठ भाग पर सुमेरु पर्वत , स्वास्तिक , नंदीपाद तथा वृक्ष बनाया गया है। इसमें खरोष्ठी में “राज्ञौ कुणिंदस अमोघभूति महरजस” लिखा है। अमोघभूति की इसी तरह तांबे की मुद्राएं मिली हैं जिन पर ब्राह्मी तथा खरोष्ठी में लिख दोनों ओर मिलते हैं। छतेश्वर राजा की मुद्रा के अग्रभाग में त्रिशूल लिए शिव की मूर्ति खड़ी है। ग्रियरसन के अनुसार उस पर “भागवत छत्रेश्वर महामन” लिखा है। उसके पृष्ठ भाग में मृग ,नंदीपाद, वृक्ष तथा सुमेरु पर्वत आदि की आकृति पाई गई।
बाद की मुद्राओं में कुलिंद राजाओं के नाम मिलते हैं। उन पर शिव और कार्तिकेय की आकृतियाँ हैं। इससे पता चलता है कि कुलिंद जन दूसरी शताब्दी में शैव थे। इनकी ताम्र मुद्रा जनपद के भीतर चलती थी, इन पर ब्राह्मी लिपि में लिखा है और चांदी की मुद्राएं अधिकांश जनपद से बाहर चलती थीं, इन पर खरोष्ठी लिपि में लिखा मिलता है।
कुलिंदो का आक्रमण और अंत :
अमोघभूति के पश्चात शकों और हूणों ने दक्षिण की ओर से कुलिंदो पर आक्रमण भी किए। कुलिंदो ने पंजाब के योद्धाओं और अर्जुनायन के साथ मिलकर कुषाण राज्य को नष्ट किया। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तम्भ लेख में कुलिंदो का नाम नहीं मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि यह जनपद 350 ई.पू. से पूर्व ही ख़त्म हो चुका होगा।
शासन प्रणाली :
कुलिंदो की गणतंत्रीय शासन’ प्रणाली थी। उनकी एक केंद्रीय सभा होती थी। उस सभा के सदस्य राजा कहलाते थे और सभापति महाराजा। इससे पता चलता है कि राजा और महाराजा की उपाधि किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं अपितु गणराज्य के महत्वपूर्ण स्थानों पर कार्य करने वालों के लिए थी।
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