Tribes of Himachal Pradesh – Gaddi Tribe
हिमाचल प्रदेश की जनजातियाँ -गद्दी जनजाति :
गद्दी चम्बा के भरमौर क्षेत्र के निवासी हैं। ये लोग धौलाधार की घाटियों में बसते हैं। इतिहासकार, गदिदयों को मुस्लिम आक्रमणों के कारण पहाड़ों की ओर भाग कर आने वाले खत्री जाति के लोग मानते हैं। परन्तु यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती। यह तो सम्भव है ,कि मैदानों से खत्री जाति के लोग आकर गद्दी जाति का अंग बन गए हों परन्तु वास्तविक गद्दी लोग अति प्राचीन और हिमाचल के मूल निवासियों में से हैं।
यह बात गद्दियों के परम्परागत विशिष्ट पहनावे से प्रमाणित हो जाती है। वैसे पाणिनि की अष्टाध्यायी में “गद्दी और गब्दिका” प्रदेश का वर्णन आया है जिसका अपभ्रंश रूप गद्दी है। अत: इस जनजाति के लोग अति प्राचीन हैं। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि गद्दी मध्यकालीन भारत के राजपुतों के वंशज हैं। जब मुगल व अन्य आक्रमणकारियों ने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया तो कुछ राजपूत अपने परिवारों के साथ इस दुर्गम इलाके में चले आए तथा पुरुष लोग पुन: लड़ने के लिए मैदानों में चले गए व युद्ध में मारे गए। कुछ इन्तजार के उपरांत उनकी स्त्रियों ने अपने नौकरों से विवाह कर लिया तथा उनकी ही संताने ये गद्दी हैं। पश्चिम एशिया से आयों का जो प्रथम काफिला आया था, उसी में से कुछ लोग सम्भवत: गद्दियों के पूर्वज रहे होंगे।
गद्दी लोगों की आर्थिकी :
गद्दी लोग भेड़ बकिरयां पालने का मुख्य व्यवसाय करते हैं। सर्दियों में ये ठण्डे इलाके छोड़ कर निम्न क्षेत्रों में अपने पशुओं समेत आ जाते हैं, और गर्मी पड़ने पर ऊपरी क्षेत्रों में चले जाते हैं। गद्दी का धन है भेड़ बकरी। स्त्री पुरुषों के कार्य पृथक्-पृथक् नियत हैं। इस के अनुसार कातना स्त्री का और बुनना पुरुष का काम है। गदियार में अभी तक भी ताला लगाने का रिवाज नहीं है। सर्दियों में प्राय: सभी स्त्री बालक ग्राम छोड़कर भेड़ बकरी चुगाने के लिये बाहर नीचे के भागों में चले जाते हैं। ग्राम में ऐसे बृद्ध पुरुष ही रह जाते हैं, जो पैदल नहीं चल सकते। प्राय: घरों में एक भी व्यक्ति पोछे नहीं रहता। ऐसे घरों में कुँडा लगा कर उस पर गीली मिट्टी थोप देते हैं। चोरी का नाम यहां के लोग कम जानते हैं। गदियार में खेती योग्य भूमि कम है। वर्ष में केवल पांच मास का भोजन ही यहां पैदा होता है। इसलिए पेट भरने और कमाने के लिए प्रायः सारी आबादी शीतकाल में चम्बा से पठानकोट तक और पालमपुर से नूरपुर तक मजदूरी के लिए चली जाती हैं। चलवासी जीवन के दौरान भेड़-बकरियों की खाल से बना खलडु (थैला ) आवश्यक वस्तुओं को रखने के काम आता है
ये ऊनी उत्पादों जैसे कंबल , शॉल और जुराबों आदि का व्यापार भी करते हैं। वर्त्तमान में भरमौर क्षेत्र में सेब का उत्पादन भी नकदी फसल के रूप में किया जा रहा है। जड़ी-बूटियों ,बादाम , अखरोट ,खुमानी आदि से भी लाभ प्राप्त कर रहे है। मक्का ,गेहूं , जौ राजमा , आलू ,इनकी मुख्य फसलें हैं।
गद्दी लोगों का पहनावा :
सर से पैर तक ऊनी वस्त्रों में खुशी के साथ भेड़ बकरियों के बीच बांसुरी बजाता गद्दी कहीं भी दूर से पहचाना जाता है ।चोला और डोरा गद्दी का प्रमुख पहनावा है। गद्दी स्त्री, पुरुष बालक सभी कमर में काले रंग का ऊनी रस्सा (डोरा) बाँध रहते हैं। इसे गद्दी गात्री कहते हैं । रात को गात्री उतारी जाती है, और सुबह उठते ही फिर से लगा ली जाती है । गद्दियों की औरतों को गद्दन कहा जाता है। वह चांदी के आभूषण बहुत पहनती है। राजा संसार चंद ने नोखू नामक सुंदरी को अपनी रानी बनाया था। गद्दी का कोट इतना घना और सुदृढ़ बुना होता है कि रात को उसे ही ओढ़कर वह मूसलाधार वर्षा में भी खर्राटे लेता है। एक बून्द भी उसके शरीर पर नहीं पहुँचती ।
चरागाह का क्षेत्र :
गद्दी लोग सर्दियों में पालमपुर, बिलासपुर, और उससे भी नीचे के भागों तक अपनी भेड़ बकरियों के साथ उतर आते हैं। गर्मियों में इनकी भेड़ें ऊंचाई के डांडों पर चली जाती हैं, जहां गद्दी खुले मैदानों में अपनी भेड़ों के साथ डेरा डालते हैं। कुगती, डांडे और लाहौल में गद्दी अधिकतर अपनी गर्मियां बिताते हैं। गद्दी प्रधानतया चम्बा जिले की भरमौर सब तहसील में रहते हैं। इसे’गदियार’ भी कहते हैं। भरमौर 9वीं शताब्दी के पूर्व चरण तक चम्बा की राजधानी रहा है।
गद्दी लोगों की धार्मिक आस्था :
गद्दी लोग शिव के पुजारी है। शिव को वे अपना सबसे बड़ा देवता मानते है। गद्दी लोग केलांग देवता (दराती देवता ) की पूजा हर रविबार को करते है। गुग्गा (पशु रक्षक ) देवता की पूजा भी सर्पों के राजा के तौर पर की जाती है। भरमौर के चौरासी मंदिरों में अधिकतर मूर्तियां शिवलिंग के रूप में विराजमान है। यहाँ 84 सिद्धों ने मनीमहेश कैलाश की यात्रा के बाद भरमौर में समाधि ली थी। भरमौर को इसीलिये चौरासी भी कहा जाता है। चौरासी के पुनरुद्धार में श्री नागा बाबा जयकृष्ण गिरि जी ने विशष प्रयत्न किया है। श्री नागा बाबा जी को गद्दी, मनीमहेश का अवतार मानते हैं। यहाँ 12वीं शताब्दी पुराना शिव-मन्दिर है तथा अन्य भी अनेक देवस्थान हैं। भरमौर के जीवित देवता तो नागा बाबा ही हैं।
गद्दी लोगों की सम्पति बँटबारा :
गद्दी समाज में पैतृक सम्पति का हस्तांतरण मुंडाबड और चुंडाबड़ प्रथा के आधार पर होता है। मुंडाबड में पिता की सम्पति का बँटबारा मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में समान रूप से होता है। परन्तु चुंडाबड़ प्रथा में यदि उस व्यक्ति एक से अधिक पत्नियां है तो ऐसी दशा में बँटबारा पहले पत्नियों में फिर उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्रों में होता है। अनैतिक सम्बन्ध से जन्मे बच्चे हलद या शकण्ड कहलाते है।
मेले तथा त्यौहार :
नुआला , शिव पूजा के रूप में मनाया जाने वाला गद्दी जनजाति के लोगों का प्रसिद्ध त्यौहार है। मिंजर , मणिमहेश यात्रा , शिवरात्रि , सितंबर में सैर या पतरोड़ू संक्रांति प्रमुख त्यौहार है।
नृत्य :
गद्दी नृत्य -गद्दी पुरुष यह नृत्य करते हैं तथा महिला गद्दन गीत गाती हैं। डाँगी नृत्य : यह स्त्री नृत्य है जिसमें गद्दने खड़ी होकर पंक्तियों तथा वृताकार नाचती है।
शिक्षा :
1951 में भरमौर सब तहसील की कुल आबादी 39,945 थी। इस में पुरुष ।6338 और स्त्रियां 14,547 थे। सारी आबादी में साक्षर व्यक्ति केवल 274 थे, इसमें स्त्रियां सारी तहसील में केबल तीन ही साक्षर थीं। अब साक्षर व्यक्ति बढ़ गये हैं। सरकार ने गदियार प्रदेश में अब अनेक स्कूल खोले हैं। लड़कियां भी अब पढ़ने लगी हैं।
विवाह के प्रकार:
गद्दी लोगों में धर्मपुन (कन्या दान ) , बट्टा -सट्टा (लड़के की बहन की शादी उसकी पत्नी के भाई के साथ ) विवाह , गुडानी (विधवा विवाह दूसरे भाई से ) विवाह , घर जवांई या कामश विवाह (7 वर्ष तक लड़की के घर में काम करना ) , खेवट विवाह (एक प्रकार का रीत विवाह ) प्रचलित है। नये कानून के कारण गद्दियों का सामाजिक जीवन अब कुछ विषम होता जा रहा है। विना विवाह किए मर जाना ये लोग बहुत अशुभ मानते हैं ।,
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