Kullu District (HP) -History, Geography, Culture & Tourist Places

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कुल्लू हिमाचल प्रदेश के मध्य भाग में स्थित जिला है। यह 31°21’ से 32°25’ उत्तरी अक्षांश और 76°55’ से 76°50’ पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। उतर तथा उत्तर -पूर्व में इसकी सीमा लाहौल स्पीति व काँगड़ा से ,पूर्व तथा दक्षिण पूर्व में किनौर व शिमला जिला से लगती है। जिला कुल्लू का क्षेत्रफल 5503 वर्ग किलोमीटर है।

निर्माण वर्ष1963
कुल क्षेत्रफल 5503 वर्ग किलोमीटर
कुल विधानसभा क्षेत्र4 (मनाली, कुल्लू, बंजार,आनी)
जनसंख्या (2011 की जनगणना)4,37,903 (2011 में)
जिला मुख्यालय कुल्लू
जनसँख्या घनत्व80 (2011 में)
साक्षरता दर 79.40 % (2011 में)
लिंग अनुपात 942 (2011 में)
दशकीय वृद्धि दर 14.76 % (2001-2011 में)
लोकसभा क्षेत्र मंडी
कुल गाँव 172

कुल्लू की सात बजीरी :

रजवाड़ाशाही के दिनों में इस रियासत का भू -भाग ऊपरी ब्यास घाटी में रोहतांग से बजौरा ,लाहौल व सतलुज घाटी का कुछ क्षेत्र मिलाकर कुल सात बजीरी (प्रान्त ) बनती थी -ये है –
(1) वजीरी परोल -(कुल्लू विशेष)
(2) वजीरी रूपी – ब्यास नदी के बाईं ओर का पार्वती व सैंज नदियों के बीच का क्षेत्र पार्वती घाटी का ऊपरी क्षेत्र जिसे ‘कनावर ‘ के नाम से जाना जाता है।
(3) वजीरी लाग महाराज – सरवरी खड्ड के दाईं ओर का क्षेत्र ,सुल्तानपुर तथा ब्यास से बजौरा तक
(4) वजीरी सराज – राज्य का उत्तरी क्षेत्र जलोड़ी जोत जो आंतरिक व वाह्य सिराज में विभाजित है।
(5) वजीरी लांग सारी –ब्यास नदी के दाईं ओर का क्षेत्र फोजल और सरवरी खड्डों के मध्य स्थित है।
(6) वजीरी वंगाहल -छोटा वंगाहल का क्षेत्र।
(7) वजीरी लाहुल – लाहुल घाटी का दक्षिणी पूर्वी खंड

कुल्लू की पर्वत श्रृंखला :

कुल्लू के पश्चिम में बड़ा भंगाल श्रृंखला है जो इसे कांगड़ा से पृथक करती है। दक्षिण में धौलाधार पर्वत है जो वाह्य हिमालय का भाग है। उत्तर पूर्व में मध्य हिमालय की पर्वत शृंखला है जो इसे लाहौल घाटी से अलग करती है। कुल्लू 1962 तक काँगड़ा का उपमंडल था तथा 1963 में यह जिला बना। कुल्लू जिला की सबसे ऊँची चोटी डिब्बी बोकरी (6400 मीटर ) है ,इन्द्रासन (6220 मीटर ), देऊ टिब्बा (6001मीटर ) है।

कुल्लू में बहने वाली नदियाँ :

कुल्लू जिला की प्रमुख नदी ब्यास है। यह ब्यास कुंड से निकलती है। भुंतर में इसके साथ पार्वती नदी मिलकर एक बड़ी नदी का रूप धारण करती है। इसकी सहायक नदियां सोलंग ,मनालसू ,फोजल ,अलिनि ,छाकी ,सरवरी ,पार्वती ,सैंज ,तीर्थन ,हारला ,आदि है। सतलुज नदी भी कुल्लू जिले की एक प्रमुख नदी है जो कुल्लू और शिमला जिले की सीमा बनाती है। आउटर सिराज की नदियां ‘आनी ‘ तथा कुर्पन ‘ सतलुज नदी में मिलती है।

तीर्थन नदी लारजी के पास व्यास में मिलती है। सैंज नदी भी लारजी के पास व्यास नदी में मिलती है। हारला नदी भुंतर के पास व्यास में मिलती है। सरवरी नदी कुल्लू के पास व्यास नदी में मिलती है

कुल्लू की झीलें :

भृगुसर: – यह झील मनाली से दस किलोमीटर दूर स्थित है। इसके किनारे ऋषि भृगु की तपस्थली थी।
दशाहर झील :– यह झील मनाली से 25 किलोमीटर दूर है और रोहतांग से 6 किलोमीटर दूर है। यह 4200 मीटर ऊंचाई पर स्थित है।
सरीताल :- यह झील सरी जोत पर स्थित है। इसकी ऊंचाई 14000 फीट है। इसके निकट से सरवरी नदी निकलती है। यह लग घाटी के अंतिम छोर पर है। जिसके दूसरी और मण्डी तथा बड़ा भंगाल के क्षेत्र आरम्भ होते है।

सरयोलसर :- यह जलोड़ी जोत के दक्षिण-पूर्व में थोड़ी दूरी पर स्थित है। इसकी ऊंचाई 3135 मीटर है।
व्यास कुण्ड: –यह सोलंग नाला से 14 किलोमीटर तथा रोहतांग से 8 किलोमीटर दूर स्थित है। इसके किनारे व्यास ऋषि ध्यान करते थे। इसकी ऊंचाई 3540 मीटर है।
मानतलाई झील :– यह पार्वती नदी का उदगम स्त्रोत है। यह मणिकर्ण घाटी की सीमा में स्थित है। इसकी ऊंचाई 16000 फीट है।
दयोरी झील :- यह सैंज घाटी में है।
हंसा झील :- इस झील के पास दो झीले हैं। इन्हे हंसो के जोड़े के समान माना गया है।

कुल्लू जिला के झरने /चश्मे :

राहला जल प्रपात :- यह मनाली से 15 किलोमीटर दूर स्थित है।
मणिकर्ण :- यह पार्वती नदी के दाएं किनारे में स्थित है। इसका पानी बहुत गर्म है।
वशिष्ट :- यह व्यास नदी के बाएं किनारे पर स्थित है। यह मनाली से 6 किलोमीटर दूर स्थित है। पानी से गंधक की बू आती है। गर्म जल कड़ी चट्टानों के नीचे से निकलता है।
कसोल :- यह पार्वती नदी के किनारे स्थित है। इसका जल भी गर्म है।
खीर गंगा :- यह मणिकर्ण से 20 किलोमीटर दूर स्थित है। गंधक के कारण पानी गर्म तथा चिकना होता है।
कलथ :-व्यास नदी के दाएं किनारे और मनाली से 4 किलोमीटर दूर स्थित है।
बैहना :- सतलुज के किनारे लुहरी के निकट आनी लुहरी सड़क पर स्थित है। यहां गुनगुना पानी है।

कुल्लू जिला के दर्रे :

रोहतांग दर्रा : इसकी ऊंचाई 4934 मीटर है। यह लाहौल और कुल्लू घाटी को जोड़ता है।
मानतलाई जोत : यह स्पीति तथा मणिकर्ण को जोड़ती है। इसकी ऊंचाई 16000 फ़ीट है
हामटा जोत : यह स्पीति तथा कुल्लू के बीच स्थित है। यह मनाली से 23 किलोमीटर दूर है।
मनाली जोत : यह बड़ा भंगाल और मनाली को जोड़ता है। इसकी ऊंचाई 4200 मीटर है।
चंद्रखणी जोत : यह 12000 फीट ऊँचा है। नग्गर से 6 किलोमीटर दूर है। यह मलाणा तथा नग्गर घाटी को मिलाता है।

सरी जोत : यह कुल्लू और बड़ा भंगाल के क्षेत्र के बीच है। इसकी ऊंचाई 15108 मीटर है।
भुभु जोत : यह 9480 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। काला नमक गम्मा से इसी जोत से लाते थे।
दुलची जोत : इसकी ऊंचाई 2788 मीटर है। यह बजौरा तथा मण्डी को मिलाता है।
जलोड़ी जोत : यह आनी तथा बंजार घाटी को जोड़ता है। इसकी ऊंचाई 3135 मीटर है।
फ़ांगची जोत : यह सैंज घाटी तथा गड़सा घाटी को जोड़ता है।
बशलेउ जोत : इसकी ऊंचाई 3150 मीटर है। यह जोत निरमंड और गौशैणी घाटी को जोड़ता है।

कुल्लू जिला के हिमनद :

पार्वती हिमनद : पार्वती हिमनद पार्वती नदी का स्रोत है। यह 1.5 किलोमीटर लम्बा है।
दुधन हिमनद : यह अलिनी नदी का स्त्रोत है

सोलंग ढलाने एशिया की सर्वोत्तम स्की ढलान है। इनकी ऊंचाई 8000 फीट है। ये मनाली से 13 किलोमीटर दूर , बोही धारा की ओट में है।
हामटा से सुरतु जाते हुए ‘बाग़ द्वारा गुफाएं ‘ आती है। ये प्राकृतिक गुफाएं हैं।
भनारा जाते हुए ‘अर्जुन गुफा‘ मिलती है।

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कुल्लू का इतिहास :

कुल्लू की वंशावली के आधार पर कुल्लू राज्य के संस्थापक का नाम विहंगमणी पाल था। लोक कथाओं में कुल्लू घाटी को कुलांतपीठ कहा गया है क्योंकि इसे रहने योग्य संसार का अंत माना गया था। कुल्लू को देव भूमि भी कहा जाता है।

कुल्लू रियासत के स्त्रोत-

कुल्लू के पौराणिक ग्रन्थों रामायण, विष्णुपुराण, कादम्बरी, महाभारत, मार्कडेण्य पुराण, वृहत्संहिता और कल्हण की राजतरंगिणी में ‘कुल्लूत’ का वर्णन मिलता है।
वैदिक साहित्य में कूलुत देश को गन्धर्वो की भूमि कहा गया है।
कुल्लू रियासत की वंशावली ए.पी.एफ. हारकोर्ट की पुस्तक ‘कुल्लू व लाहौल-स्पीति’ में दी गई है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 635 ई. में कुल्लू रियासत की यात्रा की।
उन्होंने कुल्लू रियासत की परिधि 800 कि.मी. बताई जो जालंधर से 187 कि.मी. दूर स्थित था। उसके अनुसार कुल्लू रियासत में लगभग एक हजार बौद्ध भिक्षु महायान का अध्ययन करते थे।भगवान बुद्ध के कुल्लू भ्रमण की याद में अशोक ने कुल्लू में बौद्ध स्तूप बनवाया। सलारी पत्थर लेख कुल्लू से गुप्त शासक चन्द्रगुप्त के बारे में जानकारी मिलती है।

कुल्लू रियासत की सात वजीरियाँ:

परोल वजीरी (कुल्लू शहर)।
वजीरी रूपी (पार्वत और सैंज खड्ड के बीच) (कनावर क्षेत्र)।
वजीरी लग महाराज (सरवरी और सुल्तानपुर से बजौरा तक)।
वजीरी भंगाल (छोटा बंगाहल क्षेत्र)।
वजीरी लाहौल।
वजीरी लग सारी (फोजल और सरवरी खड्ड के बीच)।
वजीरी सिराज (सिराज को जालौरी दर्रा दो भागों में बाँटता है)।

विहंगमणी पाल :

कुल्लू की वंशावली के आधार पर कुल्लू राज्य के संस्थापक का नाम विहंगमणी पाल था। इसके पूर्वज पहले प्रयाग में रहते थे। वहां से वे कुमाऊं आए और कुमाऊं से मायापुरी (हरिद्वार)। परन्तु स्थानीय सामन्तों के विरोध के कारण उन्हें वह स्थान भी छोड़ना पड़ा। विहंगमणी पाल अपने भाईयों से विदाई लेकर अपनी पत्नी, पुत्र पछपाल, और कुल पुरोहित उदयराम के साथ कुल्लू घाटी की ओर आया। सबसे पहले वह मनीकर्ण गया।

उस समय कुल्लू छोटे-छोटे गढ़ों में विभाजित था। इन गढ़ों पर छोटे-छोटे सामंत शासन करते थे। ये सामन्त, राणा और ठाकुर कहलाते थे। उसने पार्वती घाटी के कुछ एक सामन्तों से युद्ध करके उन्हें अपने अधीन कर लिया, परन्तु उसकी यह विजय स्थायी न रह सकी और सामन्तों ने फिर संगठित होकर उससे विजित भाग छीन लिए और उसे वहां से भागने पर विवश होना पड़ा। उसने जगतसुख में आकर चपराई राम नामक व्यक्ति के घर में जाकर शरण ली तथा इस प्रकार अज्ञात वास करने लगा। विहंगमणिपाल ने रियासत की पहली राजधानी (नास्त) जगतसुख स्थापित की।

विहंगमणिपाल के पुत्र पच्छपाल ने ‘गजन’ और ‘बेवला’ के राजा को हराया। पछ्पाल के बाद हिनपाल, सुर्गपाल, शक्तिपाल , महेश्वर पाल (महेंद्र पाल ) और ओमपाल राजा हुए। यह त्रिगर्त के बाद दूसरी सबसे पुरानो रियासत है।

राजेन्द्रपाल

ओमपाल के बाद उसका पुत्र राजेंद्र पाल राजा हुआ। उस समय जगत सुख, नग्गर और मध्य भाग कोठी वरसाई में गजा के सामंत सुरतचंद का राज्य था। राजेन्दर पाल ने उससे कर माँगा। बाद में कर देने पर उनके बीच युद्ध हुआ।

विशुदपाल :

विशुदपाल अपने पिता के बाद जब राजा बना तो उसने नग्गर के सामंत कर्मचंद के साथ युद्ध छेड़ा। युद्ध में करमचंद मारा गया। विशुदपाल (राजेन्द्रपाल का पुत्र) ने कुल्लू की राजधानी जगतसुख से नग्गर स्थानांतरित की। विशुद पाल के बाद उत्तमपाल , द्विज पाल , चक्र पाल , कर्ण पाल, रक्ष पाल राजा हुए।

रूद्रपाल :

रूद्रपाल के समय स्पिति के राजा राजेन्द्र सेन ने कुल्लू पर आक्रमण कर उसे कर देने पर बाध्य किया। चम्बा ने भी कुल्लू से लाहौल क्षेत्र छीन लिया। रुद्रपाल के बाद उसका पुत्र हमीर पाल स्पीति को कर देता रहा।

प्रसिद्धपाल :

रुद्रपाल के पोते प्रसिद्धपाल ने स्पिति के राजा चेतमेन को हराया। उसने लाहौल को भी चम्बा रियासत से आजाद करवा लिया। प्रसिद्ध पाल के बाद हरिचंद पाल , सुभत पाल, सोम पाल, संसार पाल ,भोग पाल ,विभय पाल, गणेश पाल , गंभीर पाल , भूमि पाल राजा हुए।

भूमि पाल :

भूमि पाल के सबंध में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। भूमिपाल के उपरांत उसका पुत्र श्री दतेश्वर पाल गद्दी पर बैठा।

दत्तेश्वर पाल (700 ई) :

दत्तेश्वर पाल के समय चम्बा के राजा मेरूवर्मन (680-700 ई.) ने कुल्लू पर आक्रमण कर दत्तेश्वर पाल को हराया। वह इस युद्ध में मारा गया। दत्तेश्वर पाल पालवंश का 31वाँ राजा था उसके समय दिल्ली का राजा गोवेर्धन था। उसके बाद उसके पुत्र अमरपाल ने सेना का नेतृत्व किया। परन्तु युद्ध में वह और उसका पुत्र दोनों मारे गए। सीतल पाल भागकर बुशहर में शरण ली। चम्बा का कुल्लू पर 780 ई. तक अधिकार रहा।

जारेश्वर पाल (780-800 ई.) :

राजा जारेश्वर पाल ने बुशहर रियासत की सहायता से कुल्लू को चम्बा से मुक्त करवाया। जारेश्वर पाल के सम्पय चम्बा का राजा लक्ष्मी वर्मन था। राजा जारेश्वर पाल के बाद प्रकाश पाल, अचम्भा पाल, तपेश्वर पाल, परम पाल , नागेंद्र पाल राजा हुए

नारदपाल :

वह चम्बा के राजा साहिल वर्मन का समकालीन था। साहिल वर्मन की सेना कुल्लू पर आक्रमण करके मनाली तक बढ़ती गयी और मनाली के निकट मजनाकोट गांव तक पहुँची गयी। वहाँ पर उसकी सेनाओं ने एक दुर्ग भी बनाया। यह संघर्ष चम्बा और कुल्लू में 12 वर्ष तक चलता रहा। बाद में चम्बा की सेना कुल्लू से भाग गई।

भूपपाल :

कुल्लू के 43वें राजा भूपपाल, सुकेत राज्य के संस्थापक वीरसेन के समकालीन थे। वीरसेन ने सिराज में भूपपाल को हराकर उसे बंदी बनाया। लेकिन बाद में उसे इस शर्त पर छोड़ा दिया की वह सुकेत को राजकर दिया करे।

अनिरुद्ध पाल :

भूपपाल के बाद उसका पुत्र अनिरुद्ध पाल भी सुकेत को राज्य कर देता रहा।

हेत पाल :

अनिरुद्ध पाल के पुत्र हेतपाल के समय में सुकेत का राजा विक्रम सेन था। विक्रम सेन तीर्थ यात्रा पर चले गए और राज-काज अपने भाई त्रिविक्रम सेन को दे दिया। विक्रम सेन के भाई त्रिविक्रम सेन ने हेतपाल की सहायता से सुकेत पर अपना अधिकार कर लिया। जब बाद में विक्रम सेन को इसके बारे में पता चला तो क्योंथल के राजा की सहायता से त्रिविक्रम सेन और हेतपाल को युद्ध में मार दिया।

सूरत पाल /हाशिर पाल :

सूरत पाल के समय लक्ष्मण सेन कुल्लू के बजीरी रूपी , लागसारी और परोल के कुछ भाग पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया।

संतोष पाल (प्रथम) : संतोष पाल जब राजा बना तो उसने लद्दाख के गयमूर और दूसरे भाग पर अधिकार कर लिया।

तेग पाल : तेग पाल ने बलतिस्तान के शासक मोहम्मद खान को मारकर उसके पुत्र को राजकर देने पर बाध्य किया।

उचित पाल : उचित पाल जब राजा बना तो उसने तिब्बत पर आक्रमण किया। उसके बाद सिकंदर पाल राजा हुआ

सिकंदर पाल :

सिकंदर पाल के समय तिब्बत के गयामूर और बाल्टीस्तान के शासकों ने मिलकर कुल्लू पर आक्रमण किया और सिकंदर पाल को उस समय पकड़ा जब वह अपने पिता का अग्निदाह संस्कार कर रहा था। इसके बाद सरस पाल ,सहदेव पाल , महादेव पाल , निरती पाल , बैन पाल , हस्त पाल , गंभीर पाल , नरेंद्र पाल और नन्द पाल राजा हुए।

उर्दान पाल-(1418-1428 ई.) : पालवंश के 72वें राजा उर्दान पाल ने जगतसुख में सध्या देवी का मंदिर बनवाया। शिलालेख के अनुसार राजा का कार्यकाल 1418 ई. से 1428 ई. रहा।

कैलाश पाल (1428-1450 ई.) :

कुल्लू का अंतिम राजा था जिसके साथ ‘पाल’ उपाधि का प्रयोग हुआ। संभवतः वह पालवंश का अंतिम राजा था। कैलाश पाल 1450 ई तक राज करता रहा। इसके पश्चात् लगभग 50 वर्षों तक कोई ‘पाल’ राजा नहीं हुआ। इसके बाद कुल्लू पर छोटे-मोटे सामन्तो ,राणाओं और ठाकुरों का राज रहा।

सिद्ध पाल सिंह : कैलाश पाल के बाद के 50 वर्षों के अधितकर समय में कुल्लू सुकेत रियासत के अधीन रहा। वर्ष 1500 ई. में सिद्ध सिंह ने सिंह बदानी वंश की स्थापना की। उन्होंने जगतसुख को अपने राजधानी बनाया।

बहादुर सिंह (1532 ई.) :

सिद्ध सिंह के बाद उसका पुत्र बहादुर सिंह गद्दी पर बैठा। वह सुकेत के राजा अर्जुन सेन का समकालीन था। उसने वजीरी रूपी और सिराज के राणाओं और ठाकुरों को जीत कर (16वीं सदी में) अपने राज्य में मिला लिया। बहादुर सिंह ने पकरसा में अपने लिए महल बनवाया। मकरसा की स्थापना महाभारत के विदुर के पुत्र मकस ने की थी। मकस का विवाह ‘तांदी’ राक्षस की बेटी से हुआ था। मकस का पालन-पोषण व्यास ऋषि ने किया था। राज्य की राजधानी उस समय नागर थी। बहादुर सिंह ने अपने पुत्र प्रताप सिंह का विवाह चम्बा के राजा गणेश वर्मन की बेटी से करवाया। बहादुर सिंह के बाद प्रताप सिंह (1559-1575), परतब सिंह (1575-1608), पृथ्वी सिंह (1608-1635) और कल्याण सिंह (1635-1637) मुगलों के अधीन रहकर कुल्लू पर शासन कर रहे थे।

जगत सिंह (1637-72 ई.) :

जगत सिंह कुल्लू रियासत का सबसे शक्तिशाली राजा था। इसने अपने राज्यकाल में कुल्लू की सीमाएं दूर -दूर तक बढ़ा ली थी। जगत सिंह ने लग वजीरी और बाहरी सिराज पर कब्जा किया। उन्होंने डुग्गी लग के जोगचंद और सुल्तानपुर के सुल्तानचंद (सुल्तानपुर का संस्थापक) को (1650-55) के बीच पराजित कर ‘लग” वजीरी पर कब्जा किया। औरंगजेब उन्हें ‘कुल्लू का राजा’ कहते थे। कुल्लू के राजा जगत सिंह ने 1640 ई. में दाराशिकोह के विरुद्ध विद्रोह किया तथा 1657 ई. में उसके फरमान को मानने से मना कर दिया था।

राजा जगतसिंह ने ‘टिप्परी’ के ब्राह्मण की आत्महत्या के दोष से मुक्त होने के लिए राजपाठ रघुनाथ जी को सौंप दिया। राजा जगत सिंह ने 1653 ई. में दामोदर दास (ब्राह्मण) से रघुनाथ जी की प्रतिमा अयोध्या से मंगवाकर स्थापित कर राजपाठ उन्हें सौंप दिया। राजा जगत सिंह के समय से ही कुल्लू के ढालपुर मैदान पर कुल्लू का दशहरा मनाया जाता है। राजा जगत सिंह ने 1660 ई. में अपनी राजधानी नग्गर से सुल्तानपुर स्थानांतरित की। जगत सिंह ने 1660 ई. में रघुनाथ जी का मंदिर और महल का निर्माण करवाया था। कुल्लू में वैष्णव धर्म का प्रचार जगत सिंह के समय हुआ।

विधि सिंह (1672-88) :

विधि सिंह ने अपने राज्य की सीमाएं दूर -दूर तक बढ़ाई। राजा विधि सिंह ने तिब्बत के विरुद्ध लड़ाई में मुगल सेना की सहायता की जिसके बदले उसे ऊपरी लाहौल का भाग मिल गया। उसने चन्द्रभागा से तांदी के बीच का भाग भी चम्बा से वापिस ले लिया। विधि सिंह ने बाहरी सिराज की धौल ,कोट कंडी और बरामगढ़ की कोठियों को बुशहर राज्य से जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। 1688 ई. में विधि सिंह की मृत्यु हो गई।

मानसिंह (1688-1719) :

मान सिंह 1688 ई. में गद्दी पर बैठा। उसके काल में कुल्लू अत्यंत शक्तिशाली राज्य के रूप में उभर आया चूका था। राजा मानसिंह ने मण्डी पर आक्रमण कर गुम्मा द्रंग (Drang) नमक की खानों पर 1700 ई. में कब्ज़ा जमाया। उसने बंगाहल के राजा पृथ्वीपाल की मण्डी के राजा सिद्ध सेन द्वारा हत्या के बाद उसकी रानी की सहायता की और बीड के भाग पर अधिकार कर मण्डी की सेना को हराया।

लाहौल-स्पीति को अपने अधीन कर तिब्बत की सीमा लिंगटी नदी के साथ निर्धारित की उसने शांगरी को कुल्लू में मिला लिया तथा कोटगढ़, कुम्हारसेन, बलसन के राजाओं से कर वसूल किये। उसने बाहरी सराज का ‘पन्द्रह बीस ‘ का भाग बुशहर से जीतकर वहाँ पर तीन किले पन्द्रह-बीस, दवको-पोचका व टांगुस्ता बनवाये। राजा के शासनकाल में कुल्लू रियासत का क्षेत्रफल 10 हजार वर्ग मील हो गया। वर्ष 1719 में कम्हारसेन के राजा ने बुशहर रियासत के साथ मिलकर धोखे से श्रीकोट में मानसिंह को मरवा दिया।

राजसिंह (1719-31) : राजा राजसिंह के समय गुरु गोविंद सिंह जी ने कुल्लू की यात्रा कर मुगलों के विरुद्ध सहायता माँगी जिसे राजा ने अस्वीकार कर दिया। इस राजा का कार्यकाल मात्र 2 वर्ष था।

जय सिंह (1731-1742) :

राजा जय सिंह के साथ ही कुल्लू राज्य का पतन आरंभ हुआ। जय सिंह ने कालू नाम के बजीर को कुल्लू से निकाल दिया था। राजा जय सिंह के समय मण्डी के राजा शमशेर सेन ने कुल्लू पर आक्रमण करके चाहौर इलाके पर कब्जा कर लिया।जय सिंह अयोध्या में रघुनाथ मंदिर में रहने लगा (लाहौर के मुगल सूबेदार से डरकर) और उसने राज्य अपने चचेरे भाई टेडी सिंह को सौंप दिया।

टेढीसिंह (1742-67) :

टेढ़ी सिंह ने वैरागियों के साथ मिलकर अपने विरोधियों को मरवाया। उसके शासनकाल में नर्तको और संन्यासी (जय सिंह का बहरूपिया) की बातों में आकर जनता ने विद्रोह किया। टेढ़ी सिंह के कार्यकाल में घमण्ड चंद ने कुल्लू पर आक्रमण किया। इसी समय मुस्लिम कट्टरपंथियों ने बजौरा मंदिर की मूर्तियों को तोड़ा। राजा टेढ़ी सिंह की वैध संतान नहीं थी। दासी पुत्र (अवैध संतानों में सबसे बड़े) प्रीतम सिंह 1767 ई. में गद्दी पर बैठा।

प्रीतम सिंह (1767-1806) :

प्रीतम सिंह काँगड़ा के राजा संसार चंद, मण्डी के राजा शमशेर सेन और चम्बा के राजा राज सिंह का समकालीन राजा था।
उसके शासनकाल में चम्बा के राजा राजसिंह ने बीड़ बंगाहल पर अधिकार कर कुल्लू के वजीर भागचंद को बंदी बनाया जिसे राजा प्रीतम सिंह ने 15 हजार रुपये देकर छुड़वाया। 1792 में संसार चंद ने मंडी से चाहौर का भाग जीत लिया और उसे कुल्लू को दे दिया। परन्तु बाद में उससे भी वापिस ले लिया और फिर मंडी को दे दिया।
1806 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

विक्रम सिंह (1806-1816) :

1806 में प्रीतम सिंह की मृत्यु के बाद विक्रम सिंह गद्दी पर बैठा। उसके गद्दी पर बैठते ही मंडी के राजा ईश्वरी सेन ने कुल्लू से देयो गढ़ ,मस्तपुर और सारी के किले जीत कर वापिस ले लिए। उसके शासनकाल में 1810 ई. में कुल्लू पूर पहला सिक्ख आक्रमण हुआ जिसका नेतृत्व सिक्ख दीवान मोहकम चद कर रहे थे। विक्रम सिंह ने गोरखों को सांगरी क्षेत्र के लिए कर दिया। विक्रम सिंह का समकालीन काँगड़ा का राजा संसार चंद था। संसार चंद ने भी कुल्लू राज्य से कर वसूला।

अजीत सिंह (1816-41) :

विक्रम सिंह की विवाहिता रानी की कोई संतान नहीं थी। अत: उसकी मृत्यु (1816 ई. में) के उपरान्त विक्रम सिंह की रखैल के पुत्र अजीत सिंह को गद्दी पर बताया गया। राज तिलक की रस्म मंडी के राजा की ओर से उसके प्रतिनिधि ने अदा की।राजा अजीत सिंह के समय 1820 ई. में विलियम मुरक्राफ्ट ने कुल्लू की यात्रा की। वह कुल्लू की यात्रा करने वाले पहले यूरोपीय यात्री थे। अजीत सिंह के चाचा किशन सिंह ने काँगड़ा की मदद से कुल्लू पर आक्रमण किया। राजा अजीत सिंह ने मण्डी की सहायता से किशन सिंह को पराजित कर बंदी बना लिया। काबुल के अमीर शाहशुजा ने कुल्लू में शरण ली जिससे रणजीत सिंह नाराज हो गया और दण्ड स्वरूप 80 हजार रुपये की मांग की।

सन 1818 में कुल्लू ने स्पीति पर परिणी दर्रे की ओर से बजीर शोभा राम के भाई के नेतृत्व में आक्रमण किया। कुल्लू सेना ने स्पीति घाटी के बौद्ध बिहारों को लूटों तथाभारी मात्रा में लूट का माल लेकर वापिस आई। सन 1820 में कुल्लू राज्य में प्रवेश करने वाला मूरक्राफ्ट पहला यूरोपियन था, जब वह अपनी लद्दाख यात्रा पर था। 1840 ई. में सिक्खों की एक सेना जनरल वंचूरा के नेतृत्व में मंडी पर आक्रमण करने के लिए भेजी गई। कुल्लू रियासत 1840 से 1846 ई तक सिक्खों के अधीन रही। सन 1841 में राजा अजीत सिंह की मृत्यु हुई।

अंग्रेजों का शासन :

1846 ई.में अंग्रजों और सिक्खों में पहला युद्ध हुआ। इसके उपरांत 9 मार्च, 1846 की सन्धि के परिणाम स्वरूप सिंध और सतलुज के मध्य पहाड़ी क्षेत्र अंग्रेजों के हाथ आया। कुल्लू का सारा भाग 1846 ई. में अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। लाहौल -स्पीति को कुल्लू से मिलाया। कुल्लू को 1846 में काँगड़ा का उपमंडल बनाकर शामिल किया। कुल्लू उपमंडल का पहला सहायक उपायुक्त कैप्टन हेय था।

1852 ई. में ठाकुर सिंह की मृत्यु हो गई और ज्ञान सिंह उसका अवैध पुत्र उत्तराधिकारी बना। इस आधार पर अंग्रेजी सरकार ने उसकी पदवी “राजा” से बदलकर “राय ” कर दी और उसके राजनैतिक अधिकार समाप्त कर दिए।

स्पीति को 1862 में सिराज से निकालकर कुल्लू की तहसील बनाया। वर्ष 1863 में वायसराय लार्ड एल्गिन कुल्लू आने वाले प्रथम वायसराय थे। कुल्लू उपमंडल से अलग से अलग होकर लाहौल-स्पीति जिले का गठन 30 जून , 1960 ई. में हुआ।

1963 ई. में कुल्लू अलग जिला बना करउभरा तथा सन 1966 तक पंजाब प्रान्त का एक हिस्सा बन कर रहा। कुल्लू जिले का 1 नवंबर, 1966 ई. को पंजाब से हिमाचल प्रदेश में विलय हो गया।

Banjar Fair District Kullu Himachal Pradesh

यह मेला ज्येष्ठ संक्रान्ति के तीसरे दिन मनाया जाता है।
इसमें श्रृंगी ऋषि तथा इसी क्षेत्र के अन्य देवता सम्मिलित होते हैं।
यह भीतरी सिराज का सबसे बड़ा मेला है जो तीन दिन तक मनाया जाता है।
श्रृंगी ऋषि का मन्दिर ‘बागी गांव’ में है परन्तु मूल आश्रम संकीर्ण टीले पर है।
यह विशुद्ध व्यापारिक होता है तथा पर्वतीय आंचलों में रहने वाले अपनी आवश्यकता की वस्तुयें क्रय करके ले जाते हैं।
यह स्थान उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक तक उजाड़ था। जहां व्यापारी आकर सामान का क्रय विक्रय करते थे।
धीरे-धीरे इस कार्य ने मेले का रूप ले लिया। फिर यहां बस्ती भी हो गई।
यह स्थान कृषि योग्य भी न होने से बंजर कहलाता था और उसी से यहां का नाम बन्जार पड़ा।

Bhunda Festival of Nirmand District Kullu

भारत में पहले नर बलि की प्रथा थी। भूण्डा भी नर बलि का त्यौहार है। कुल्लू जिला में इसे ‘बला’ (भीतरी सिराज) तथा निरमण्ड (बाहरी सिराज) में प्रमुख रूप से मनाया जाता रहा है।

‘बला’ जहां मार्कण्डेय ऋषि और बाला सुन्दरी के मंदिर हैं, में भूण्डा उत्सव मनाना बंद कर दिया गया है। निरमण्ड में यह उत्सव अब भी मनाया जाता है। परन्तु मानव के स्थान पर अब बकरे की बलि दी जाती है। यह उत्सव हर बारह वर्ष के बाद मनाया जाता था। भुण्डा त्यौहार अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग पर समय मनाया जाता है। सन् 2005 में रोहडू क्षेत्र में भी 70 साल के उपरांत मनाया गया था। इस मेले में क्षेत्र के नाग देवताओं का भाग लेना निषिद्ध है।

इसकी पृष्ट भूमि खशों और नागों के संघर्ष से जोड़ी जाती हैं। खशों ने नागों पर विजय पाने के पश्चात् इस त्यौहार को विजय उत्सव के रूप में मनाया था। भुण्डा में प्रयोग किये जाने वाले रस्से की आकृति भी नाग के समान होती है। जिसका एक सिरा मोटा तथा दूसरा सिरा पूंछ के समान पतला होता है।

इस रस्से को खश जाति के विशेष वंश के प्रतिनिधि द्वारा ही बांधा जाता है। नौड़ जो रास्ते पर बलि के लिये बैठता था नाग वंश का प्रतिनिधि माना जाता है। कुछ विद्वानों ने भुण्डा को रस्से पर फिसलने का खेल तथा अन्य ने इसका संस्कृत में शाब्दिक अर्थ निकाल खुशी की अभिव्यक्ति कहा है। परन्तु भुण्डा के विशेष अनुष्ठान और खतरों को सम्मुख रखते हये इसे खेल या खुशी का त्योहार नहीं माना जा सकता है।


इसके लिए एक वर्ष पूर्व तैयारी आरंभ होती है। छ: मास पूर्व रस्से के लिये विशेष घास मूंज काटनी पड़ती है। इस घास से 500 मीटर लम्बा रस्सा ‘बेड़ा’ बनाता है। वह प्रतिदिन सात हाथ रस्सा स्नान करने के बाद बनाता है। उसे इन दिनों प्रथक कमरे में रखा जाता है तथा वह केवल एक समय भोजन करता है। उसे एक बिल्ली भी दी जाती है जो रस्से की चूहों से रक्षा करती है।

निरमण्ड में भुण्डा बूढ़ा देवता के नाम से किया जाता है। पहले दिन देवता यज्ञ स्थान पर अपने श्रद्धालुओं के साथ आता है। अगले दिन मन्दिरों की शिखा पर पूजा शिखा फेर की जाती है। विचार है कि इससे नागों की प्रेतात्मायें शांत होती हैं। फिर काली की पूजा की जाती है।

तीसरे दिन देवता को भोर होने से पूर्व ‘कुर्पन नदी में स्नान के लिये ले जाया जाता है। रस्सा भी साथ ले जाते है। दोनों को नदी में स्नान कराया जाता है। वापसी पर रस्से के एक सिरे को ऊंचाई पर तथा दूसरे सिरे को नीचे निश्चित स्थानों पर बांध दिया जाता है। एक बजे के पश्चात् बेड़ा को देवता की अरगलों पर बैठाकर लाया जाता है।

रस्से पर काष्ठ फिरनी रख कर सूत की डोरियों से बांधी जाती हैं। बेड़ा को उस पर बिठाकर फिरनी को रेत की थैलियों से सन्तुलित किया जाता है और फिरनी की डोरी काट दी जाती है और वह बेड़ा के साथ तेजी से सरकती है। बेड़ा रस्से के दूसरे सिरे तक यदि पहुंचता तो यह जिस व्यक्ति की वस्तु को छुये उसे वह देनी पड़ती थी।

यदि बेड़ा मर जाता तो उसका दाह संस्कार धूमधाम से किया जाता था। उसकी पत्नी को देवता की ओर से जमीन तथा धन निर्वाह के लिये दिया जाता था। जीवित बेड़ा को भी बड़ी धूमधाम से मेला स्थल को ले जाया जाता था। अब बेड़ा के स्थान पर बकरा काष्ठ फिरनी पर बिठाया जाता है। चौथे दिन रंगोली सजाई जाती है, जहां पर परशुराम की पालकी लाई जाती है।

भुण्डा की समाप्ति की घोषणा की जाती अन्य सभी देवता उस मण्डप में प्रवेश कर अपने-अपने स्थानों को लौट जाते हैं। मेला समाप्त हो जाता है। 1856 ई. में भुण्डा में बेड़ा की मृत्यु हो गई थी। उस समय के पश्चात् रस्से पर बकरा चढ़ाया जाने लगा। अब जहां भी भुण्डा उत्सव मनाया जाता है वहां ‘बेड़ा’ की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध किए जाते हैं। जिन स्थानों पर बेड़ा के लिए मनुष्य चुना जाता है, वहां पर प्रशासन की ओर से सुरक्षा के लिए जाल का प्रबंध होता है।

Faagali Fair of District Kullu-Himachal Pradesh

फागुन मास में मनाये जाने के कारण इस मेले को फागली कहते हैं। फागली से कुल्लू में मेलों का शुभारम्भ होता है। इसके पश्चात् दशहरा तक कुल्लू जिला के किसी क्षेत्र में हर मास कोई न कोई मेला होता रहता है।

यह फागली लाहुल या किन्नौर की फागली से भिन्न है। लाहुल की फागली चन्द्र पंचांग के अनुसार नववर्ष का उत्सव है, जबकि कुल्लू जनपद में फागली अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि लिये हुए है।

फागली के समय सात दिन तक देवता की पूजा की जाती है। छाया में उगाई जौ की पीली पत्तियां देवताओं को भेंट करते हैं तथा स्त्रियां बालों में और पुरुष टोपियों में सजाते हैं। मेले के दिन राक्षस और देवता का युद्ध दिखाया जाता है। राक्षस शरीर पर जंगली घास और मुख पर मुखौटे लगा कर बनाया जाता है।

देवता का प्रतिनिधित्व गूर करता है। विशेष ताल पर थेई थेई लेई लेई पर राक्षस खेल तथा देऊ खेल प्रदर्शित की जाती है जिसके अन्त में विजयी देवता होता है। उसी क्षेत्र में इस राक्षस का नाम टुण्डी बताते हैं जिसने मनाली से अरछण्डी तक आतंक मचाया था।

जनश्रुति अनुसार मनु महाराज ने शांडिल्य मुनि की सहायता से उसे समाप्त कर दिया। इसलिये पहला फागली मेला मनु मन्दिर में होता है और अन्तिम शांडल देवता के स्थान शालीण में होता है। निचले क्षेत्र में कोटलू की फागली प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों में भी देव शक्ति का आसुरी शक्ति पर विजय के रूप में यह त्यौहार मनाया जाता है।

प्रमुख पर्यटन स्थल :

मनाली : मनाली का नाम मनु का नाम मनु के नाम पर पड़ा (मनु-आलय) अर्थात मनु का घर। मनु ने सृष्टि की रचना यहीं से आरंभ की। भीम ने हिडिम्बा से यहीं पर विवाह किया। डूंगरी मेला जो हिडिम्बा देवी को समर्पित है, यहीं मनाया जाता है। मनाली से 12 किलोमीटर दूरी पर सोलंग नाला में अंतराष्ट्रीय स्कीइंग प्रतियोगिता व राष्ट्रीय शीतकालीन खेल आयोजित होते हैं। मनाली में हिडिम्बा देवी का मंदिर है, जिसे 1553 ई. में राजा बहादुर सिंह ने बनवाया था। मनाली में श्रृंग ऋषि ने राजा दशरथ से पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करवाया था। मनाली कुल्लू मार्ग के भनारा गाँव में अर्जुन गुफा है। इसमें श्रीकृष्ण भागवान की प्रतिमा है। अर्जुन ने ब्रह्म अस्त्र प्राप्ति के लिए यहीं तपस्या की थी। मनाली में 1961 ई. में पर्वतारोहण संस्थान खोला गया।

मणिकरण : यहाँ पर गर्म पानी का चश्मा है। यहाँ देवी पार्वती की कान की मणि टूट कर गिर गई थी।

नग्गर : यहाँ पर रोरिक कला संग्रहालय है। रोरिक रूस का रहने वाला था। 1942 ई. में इंदिरा गाँधी व पंडित नेहरू यहाँ आए थे। यह पूर्व में कुल्लू रियासत की राजधानी था। देविका रानी निकोलस रोरिक की पत्नी थी।

भुंतर : भूंतर में हवाई अड्डा है। हारला नदी भूंतर में ब्यास नदी में मिलती है।

मलाणा : मलाणा गांव विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र है, जिस पर शासन जामलू देवता करते थे। जामलू देवता परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि को कहा जाता है।

तीर्थन : यहाँ ग्रेट हिमालयन राष्ट्रीय पार्क है।

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